



वो भी क्या ज़माना था
जब चिट्ठियॉं सुनाती अपनों का हर
अफ़साना था!!
वो भी क्या ज़माना था
चिट्ठी के ज़रिए ही अपनों के पते का पता था
अब ज़माना है आॅनलाइन चैटिंग का
पता ही नहीं बात पड़ोस वाले से
हो रही या पड़ोस देश वाले से!!
वो भी क्या ज़माना था
चिट्ठी जानने वालों को नहीं
”जान” को भेजी जाती थी
अब इस मैसेज के दौर में
बिना जाने ही हर किसी से
बस जान पहचान बढ़ाई जाती है!!
वो भी क्या ज़माना था
फ़ासला मीलों का और अपने इंतज़ार को
आज़माना था!!
वो भी क्या ज़माना था
दो दिलों की दूरियॉं घटाती
चिट्ठी के इंतज़ार को माना अपना नसीब
आज दौर है हर शाम मुलाकात का
पास तो सब नज़र आएंगे
पर कोई है नहीं करीब!!
वो भी क्या ज़माना था
चिट्ठी में ना सिर्फ अल्फ़ाज़ के मोती
तेरे जज़्बात की थी चित्रकारी
अब ज़माना है इमॉटिकान्स (इमोजी) का
लब्ज़ों के मायने जो समझ पाएं
ऐसा रहा नहीं कोई कारी (रिडर)!!
वो भी क्या ज़माना था
जवाब की बेसब्री से सब्र बयॉं करती
मेरे इश्क का पैमाना था!!
वो भी क्या ज़माना था
नफरत, मोहब्बत में तब्दील हो जाती
डाकिए के हाथ में नाम की मेरे
जब चिट्ठी नज़र आती
अब ज़माना है व्हाट्सएप्प व फेसबुक का
पल भर में ब्लॉक व अनफ्रेंड के विकल्प
नफरत की आग को हवा दिया करती है!!
वो भी क्या ज़माना था
बेनाम चिट्ठी भी पहचान लेते थे
तेरी खुशबू से
इस तकनीकी दौर में
एंड्रॉइड फोन लिए घूमते हैं हर वक्त
पर पता कभी पूछा नहीं तेरा
गूगल मैप से!!
वो भी क्या ज़माना था
तेरी चिट्ठियों के पर्चे जो दबा रखे सिरहाने
पूरे घर में मेरे, वो इक
सुकून भरा आशियाना था!!
वो भी क्या ज़माना था!!
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